हमारी संस्कृति का परिचय कराती अनमोल पुस्तक "हमने तो वो दिन देखे हैं"
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"हमने तो वह दिन देखे हैं" कैलाश जी मीणा साहब की साहित्य को समर्पित काव्य की अनमोल कृति है। देखने और कहने मात्र से तो यह एक काव्य संग्रह है परंतु इसे पढ़कर मनन करने पर पता चलता है कि यह एक ऐसी अद्वितीय पुस्तक है। जिसे उपन्यास, संस्मरण या 19वीं 20वीं सदी की यात्रा कहा जा सकता। इस कृति में खास बात यह भी है कि यह एक कल्पना मात्र से ना लिखी होकर कवि ने यह है सत्यता के अपनी जीवन के अनुभव और अपने बुजुर्गों से सुने हुए किस्सो के आधार पर लिखी है। पुस्तक को पढ़ना ऐसे लगता हैं जैसे हमने 20वीं सदी की पूरी यात्रा अपनी आंखों से की है।
यह समस्त पुस्तक मैंने आदरणीय रोज एक खण्ड लिख रहे थे तब फेसबुक पर पढ़ी थी। मैं बड़ा खुशनसीब हूँ जो कैलाश जी मुझे यह पुस्तक भेंट की। जिससे गहनता से दोबारा पढ़ने का सौभाग्य मिला। कृति में खास बात यह भी है कि पहले खंड से लेकर आखिरी खंड तक कविता की समस्त लाइन एक ही लय में लिखी गयी हैं। जो इस पुस्तक को अन्य पुस्तकों से भिन्न बनाती है। यदि पुस्तक को हम पूरे आनंद के साथ पढ़ते हैं तो यह हमें बहुत आनंद प्रदान करती हैं और हमारी पुरानी यादों को जीवित करती है। हमने तो वो दिन देखे हैं जब ज्वार बाजरा खाते थे। गेहूं की रोटी खाने को हम सबके मन ललचाते थे।। इस पंक्ति से पूरी किताब का चित्रण होता दिखाई दे रहा है कि हमने तो वह दिन देखे थे जब ज्वार बाजरा खाते थे गेहूं की रोटी खाने को हम सबके मन ललचाता जाता था। ज्वार बाजरा से शुरू हुआ जीवन गेहूं तक आ गया यह पूरी जीवन यात्रा आज फिर किस मोड़ पर है। लोग गेहूं की रोटी को तरस रहे हैं। मैं बड़ा खुशनसीब हूं जो बीसवीं सदी के अंत में पैदा हुआ तो मुझे इस किताब के 20 प्रतिशत जीवन जीने को मिला।
पुस्तक से - जब मैंने पुस्तक को पढ़ना शुरू किया तो लगा मैं कोई कविता शुरू ना करके विशु सदी की यात्रा शुरू कर रहा हूं पुस्तक में शुरू में ही पता चला कि किस प्रकार इस आधुनिक युग में लोग अलार्म से जगते हैं उस जमाने में लोग मुर्गों की बाग पंछियों पंछियों की चहचहाहट कुरवाई से आई हवा की सनसनाहट से जगह करते थे यदि सरलतम रूप से कहा जाए तो सब सूरत से पहले जगह करते थे।
जब मुर्गा बांग मारता था तब दिन अंगड़ाई लेता था।
अपने बैलों को साथ लिये कृषको का दल चल देता था।
पुस्तक में सभी सभी मौसमों और 19वीं 20वीं सदी का सरलता से काव्य वर्णन किया गया है।
इस दौर में पानी की कितनी किल्लत है और उस जमाने में अतिवृष्टि से लोग परेशान थे,,,
जब घोर अंधेरी रातों में मिट्टी के घर ढह जाते थे।
जीवन के सब सुंदर सपने वर्षा जल में बह जाते थे।।
आज के इस महंगाई के दौर में जहां एक रुपए का भी चलानी दिनों दिन बंद होता जा रहा है उस वक्त कुछ आनो में ही खुशियां खरीद ली जाती थी,,,
मेला खर्ची के नाम हमें आने दो चार मिला करते।
सर्कस,झूले,बाजार देख सबके मुख कंज खिला करते।।
उसी सदी का अंधविश्वास दिखाते हुए कवि जी लिखते हैं,,,
कुछ भूत प्रेत डायन चुड़ैल या जिंद डराया करते थे।
तब जादू - टोने करवा कर संताप मिटाया करते थे।।
मजदूर किसान किस प्रकार पीड़ित थे और साहूकार के खुशी के ठिकाने दिखाते हुए कवि जी लिखते हैं,,,
मजदूर किसान दुकानों पर आने-जाने से डरता था।
बनिया बहियों के पन्नों पर रुपयों की खेती करता था।
यह विज्ञान का युग उस पीढ़ी के लिए एक अचंभा था यह दिखाते हुए कवि यह लिखते हैं,,,
बिजली का पहला बल्ब जिला बस्ती में चांद उतर आया।
उस दौर में कपड़ों से ही नहीं सिर्फ पगड़ी से भी जाति समुदाय का पता लग जाता था।
कुछ साफे जाति बता देते कुछ सूबे के परिचायक थे।
कुछ साफे ज्यू मजबूरी थे कुछ साफे ज्यू अधिनायक थे।
इस आधुनिक युग में जो मोबाइल में पूरी दुनिया समा गई है उस वक्त समाचार के लिए भी चिट्टियां लिखी जाती थी,,,,
उस इंतजार की दुनिया में डाकिया खबर पहुंचाता था। चिट्ठी - पत्री के माध्यम से अपनों को रोज मिलाता था।।
पुस्तक में जिन व्यक्तियों के जीवन का वर्णन अनुभव लिखा गया है कवि ने उनके नामों को संक्षेप में लिखने की कोशिश की हैं और वो भी कविता में मिलाते हुए एक लय के साथ,,,,
तब जाने क्या मज़बूरी थी सब नाम निराले होते थे।
ज्यूँ एक पुराने डिब्बे से हर बार निकाले होते थे।।
कुछ काळ्या, धोळ्या, लील्या थे कुछ गंगल्या, छिगन्या, मगन्या थे।
कुछ रूड्या और कजोड्या थे कुछ नाथ्या, जंगलूया, जगन्या थे।।
कुछ कल्या और छींतऱ्या थे कुछ पन्या, धन्या, पूर्या थे।
कुछ लादया और जुवाना थे कुछ अमर्या, धान्या, भूर्या थे।
कुछ भैर्या और भेभल्या थे कुछ गध्या, सूण्या, नान्या थे।
कुछ चौथ्या, स्योल्या, मंगळ्या थे कुछ लाल्या, चून्या कान्या थे।
कुछ कल्ली,धन्नी,मन्नी थी,कुछ आँची,पाँची,सन्तोषी थी।
कुछ रूड़ी,कजोड़ी,ज्यानां थी,कुछ काळी,धोळी, ख़ामोशी थी।
कुछ अमरूदी, रमकूड़ी थी कुछ अमरी, तीजाँ, छोटी थी।
कुछ नारंगी, छिमली या जड़ाव, कुछ मूळी, मूँगी, घोटी थी।।
ये नाम हमारे होने की असली औक़ात बताते थे।
गेहूँ की रोटी खाने को हम सबके मन ललचाते थे।।
पुस्तक "हमने तो वो दिन देखे हैं" के रचियता आदरणीय श्री कैलाश चंद्र "कैलाश" जी को प्रथम पुस्तक प्रकाशन के लिये बहुत-बहुत बधाई और अनंत शुभकामनाएं।
बोधि प्रकाशन
कवि-कैलाश चंद्र "कैलाश"
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