कहा खो रहा बचपन-पूरणमल बुनकर

जीवन का सबसे सुंदर समय होता है , बचपन में न कोई चिंता न फ़िक्र । बस मस्ती ही मस्ती , आनंद ही आनंद ।न कमा कर लाने की चिंता , न पका कर खाने की फ़िक्र , घर में राशन -पानी है या नहीं ,स्कूल की फीस भरने का समय आ गया पैसे हैं या नहीं , मकान का किराया भरना है ,बनिये का उधार चुकाना है ,बुरे वक्त के लिए कुछ बचाना भी है ......यह सब सोचना बड़ों का काम है बच्चों को इन  बातों से क्या सरोकार !!! खाओ - खेलो मज़े करो...इसी का नाम है बचपन ।
------- लेकिन देश मे ऐसा भी बचपन जहाँ तहाँ  देखने को मिल जाता है जिसे अपने नन्हे कंधों  पर ये बड़ी ज़िम्मेदारियाँ उठानी पड़ती हैं । जिन्हे आँख खोलते ही घर में बस भूख और विवशता दिखाई देती है , जो खाली पेट घर से निकल जाते हैं कमाने की चिंता में .उन्हें नहीं पता कि  मस्ती क्या होती है ,बेफिक्री क्या होती है .....उन्हें तो होश सँभालते ही अगर कुछ मिलता है तो तन ढकने भर को चिन्दी लगे कपड़े , आधा पेट भोजन और मिलती हैं ढेर सी ज़िम्मेदारियाँ ।


देश का वर्तमान और भविष्य दोनों बच्चे ही तो हैं किन्तु जिनका वर्तमान ही गरीबी के गर्त में डूबा हुआ हो , जिनका बचपन ज़िम्मेदारियों के बोझ तले दबा हुआ हो , जिनका खेल खिलौनों से दूर का भी  नाता न हो, जिन्होंने विद्यालय का मुंह कभी देखा न हो , उनका भविष्य नशे की भेंट ही चढ़ जाता है ..वे बचपन से ही कमाने में लग जाते हैं । चाय की दुकाने हो या पटाखे बनाने की फैक्ट्रियां ,चूड़ियाँ  बनाने का काम हो या कूड़ा बीनने का , हर जगह सिसकता बचपन अपनी ज़िन्दगी को ढोता दिख जाता है । उन्हें छोटी उम्र में ही घातक बीमारियां घेर लेती हैं । अपने आस- पास की चमक- दमक उन्हें अपराध की दुनिया की ओर ले जाती है। वे चोरी - चकारी करना, जेब काटना और ड्रग्स लेना तक शुरू कर देते हैं ।

   देश को आज़ाद हुए कई वर्ष हो चुके हैं, आज भी देश में बालश्रम नामक धब्बा धुलने का नाम नहीं ले रहा । सरकार ढोल पीट- पीट कर भले ही यह कहे कि  देश विकास की ओर अग्रसर है ,देश डिजिटल होने जा रहा है, देश में बुलेट ट्रैन दौड़ाने का सपना दिखाया जा रहा है .....अमीर और अमीर हो रहा है और गरीब और गरीब !!! कानून बने हुए अवश्य हैं लेकिन सरेआम कानून का मज़ाक उड़ाया जा रहा है । स्वतंत्रता दिवस की शाम थी हम बाजार से घर से लौट रहे थे, राजस्थान विश्वविद्यालय का इलाका था और आदमकद बड़े- बड़े तिरंगे लिए उन्हें बेचने के लिए भागते  नन्हे कदम ...मेरा दिल खून के आँसू रो पड़ा । मुझे लगा धिक्कार है ऐसी आज़ादी को .जिस देश में बच्चों का बचपन यह सब करने को विवश हो उसे कैसे कह दूँ  ' सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा ''  शर्म से डूब मरने के लिए चुल्लू भर पानी भी न मिला मुझे । पर क्या कर सकते हैं ....जो कर सकते हैं वही आँख मूँद कर बैठे हैं ।

आज देश में बालश्रम के आंकड़े देखकर सचमुच कलेजा मुँह  को आ जाता है ।  पांच करोड़ से भी अधिक बाल श्रमिक हैं देश में । ऐसा तो  है नहीं कि किसी को पता नहीं है । कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि  इन कानूनों के रक्षकों और अपनी पीठ थपथपाने वाले विकासशील देश के राजनेताओं के खुद के घरों में सेवा के लिए आपको चौदह वर्ष से कम के बालक मिल जाएँ ।  भाषण झाड़ने से देश का विकास नहीं होता जमीनी स्तर पर काम करना पड़ता है । क्या कारण है कि इन बच्चों की दशा कभी सुधरती ही नहीं ? कानून को सख्ती से लागू करने के लिए रणनीति क्यों नहीं बनायीं जा सकती ?? अगला चुनाव कैसे जीता जायेगा इसकी रणनीति पर चर्चा तीन वर्ष पहले ही आरम्भ हो जाती है करोड़ों रुपये खर्च कर के लोगों को हायर किया जाता है सोशल मीडिया का प्रयोग कर मुहीम चलायी जाती है और न जाने क्या क्या !!! इसी तरह युद्ध- स्तर पर इस समस्या को सुलझा कर देश के भविष्य को बचाने का काम क्यों नहीं किया जा सकता  उनका शारीरिकऔर मानसिक शोषण क्यों नहीं रोका जा सकता ? धिक्कार है  ऐसे विकास को जिसमें कि माँ को अपनी ममता का गला घोंट कर कुछ रुपयों या फिर थोड़े से अनाज के लिए अपने बच्चों को बेच देना पड़ता है . छोटी छोटी अपनी बच्चियों को वेश्यावृत्ति में धकेलना पड़ता है .....अपने बच्चों को भीख मांगने के लिए तैयार करना पड़ता है ....जूठन से उठा कर खाना खिलाना पड़ता है ....कैसा विकास है यह ??? यदि  हमारा  समाज ,  हमारे नेता  और  कानून  के  रक्षक  अपने  अधिकारों  का  प्रयोग  करके  इन  बच्चों  को  एक  सुनहरा  भविष्य  नहीं  दे  सकते तो  बंद कर  दें विकास का ढोल  पीटना ।  सबसे अधिक आवश्यक है अपने देश की बेटियों की रक्षा जो अभावों  के चलते वेश्यावृत्ति के दुष्चक्र में फंस रही हैं , अपने नौनिहालों की रक्षा जो नशे की लत के चलते जीवन से हाथ धो रहे हैं , जिनके हाथों में किताबों की जगह भीख के कटोरे हैं, जिनका बचपन खिलौनों के लिए तरस रहा है ,जिनका बचपन अभिशप्त बचपन है ।

क्या इनका भी कोई बाल दिवस होगा ?
 पूरणमल बुनकर 
स्वतंत्र पत्रकार,

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